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इंद्रियों को शरीर से बड़ा माना जाता है, लेकिन इंद्रियों से भी अधिक बढ़कर मन है। मन से बड़ी बुद्धि और बुद्धि से बड़ा स्वयं, स्वयं है। इस प्रकार स्वयं को जानो और इस दुश्मन रुपी इच्छा को मार डालो जिसे पराजित करना बहुत ही मुश्किल है।
श्री कृष्ण, तीसरा अध्याय, #3.6
जैसे आग धुएं से ढकी रहती है और धूल से दर्पण, वैसे ही ज्ञान इच्छा से ढका हुआ है। इंद्रियां, दिमाग और बुद्धि इसकी जगह ले लेती हैं। इनके माध्यम से ये ज्ञान को ढक लेती हैं।
श्री कृष्ण, तीसरा अध्याय, #3.5
मूर्ख, जिसका दिमाग अहंकार से भ्रमित है, सोचता है, "मैं ही कर्ता हूं।" पूर्ण ज्ञान के व्यक्ति को अपूर्ण ज्ञान के उन अज्ञानी लोगों के दिमाग को परेशान नहीं करना चाहिए। राग और द्वेष सभी अर्थ-वस्तुओं में छिप्पे हुए स्थित हैं। मनुष्य को इन दोनो के वश में नहीं होना चाहिए क्यूंकि वे दोनो ही आपके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान शत्रु हैं।
श्री कृष्ण, तीसरा अध्याय, #3.4
अर्जुन, जो व्यक्ति सृष्टि के पहिये का पालन नहीं करता, अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करता, वह एक पापी और कामुक जीवन की ओर जाता है और व्यर्थ में जीता है। इसलिए मोह को त्याग कर हर समय अपने कर्तव्य को कुशलता से करें। मोह के बिना काम करने से मनुष्य सर्वोच्च प्राप्त करता है।
श्री कृष्ण, तीसरा अध्याय, #3.3
वह व्यक्ति जो बाहरी रूप से भावनाओं और कार्यों को त्याग देता है परंतु मानसिक रूप से इंद्रियों की वस्तुओं पर ही निवास करता रहता है; ऐसी बुद्धि के व्यक्ति को पाखंडी कहा जाता है। इसलिए अपने करम और कर्तव्य का पालन करें; करम करना निष्क्रियता से बेहतर है। करम किये बिना आप अपने शरीर को भी ठीक नहीं रख सकते।
श्री कृष्ण, तीसरा अध्याय, #3.2
मनुष्य करम में प्रवेश किए बिना करम से स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर सकता। वह कार्य का त्याग कर पूर्णता तक नहीं पहुंच पाता है। निश्चित रूप से कोई भी व्यक्ति क्षण भर के लिए भी निष्क्रिय नहीं रह सकता। वह असहाय रूप से प्रकृति के तरीकों से कार्रवाई करने के लिए प्रेरित है।
श्री कृष्ण, तीसरा अध्याय, #3.1
ईश्वर अनुभवी आत्माएं, जो आनंद के लगाव और अहंकार से मुक्त हो जाती हैं, वे इस स्थिति में स्थापित यहां तक कि आखिरी पल में भी ब्रह्म का आनंद प्राप्त करती हैं।
श्री कृष्ण, दूसरा अध्याय, #2.11
जैसे विभिन्न नदियों का पानी समुद्र में प्रवेश करता हैं जो कि सब तरफ से भरा हुआ है फिर भी निर्विवाद रहता है; उसी तरह वह व्यक्ति जो आनंद को बिना महसूस किये अपने अंदर समा लेता है वह शांति प्राप्त करता है; वह नही जो इस तरह के आनंद का सदा इंतज़ार ही करता रहता है।
श्री कृष्ण, दूसरा अध्याय, #2.10